संस्कृति और साहित्य के साथ शिक्षा सम्बन्ध अटूट है. विदेशी शासकों ने हमारे शिक्षालयों को ऐसा कारखाना बना डाला था जिसमें निर्जीव क्लर्क मात्र गढ़े जाते थे. उन्हें अपना शासन-यन्त्र चलाने के लिए ऐसे ही पुतलों की आवश्यकता थी जिनमें न अपनी सांस्कृति विशेषताओं का ज्ञान होता था, न अपने चरित्र का बल होता था.
हम आज भी उसी ढांचे को चलरहे हैं जिसमें मनुष्य को मनुष्यता देने की कोई शक्ति नहीं है. आज भी हमारी शिक्षा का लक्ष्य प्रमाण-पत्र देना मात्र है. हम विश्वविद्यालयों के गगनचुम्बी भवन, कीमती फर्नीचर और ऊँचे-ऊँचे वेतन पाने वाले शिक्षकों को जानते हैं और गाँव की उस पाठशाला से भी परिचत हो सकते हैं जहाँ मेघ से अधिक छप्पर बरसता है, फटा टाट ही धरती की एकमात्र सजावट है और तीन-तीन मास वेतन न पाने वाले तथा विधार्थियों से एक-एक मुट्ठी चने मांगकर अपनी भूख शांत करने वाले गुरु हैं. भाव और आभाव की चरम सीमाओं पर स्थित ऐसे विश्वविद्यालयों और ऐसी पाठशालाओं में एक ही समानता मिलेगी और वह है जीवन के अदन-प्रदान का भाव, जिसके लिए शिक्षक और विद्यार्थी एकत्र होते हैं और जिसकी सफलता विद्यार्थी को पूर्ण बनाना है. ----- महादेवी वर्मा
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